मेरा गाँव मुझे बहुत याद आता है।
जैसे मेरे गुजरे हुए पुरखे याद आते हैं।
वे लौट कर आयेंगे नहीं,
और मैं लौट कर जाऊंगा नहीं।
फिर भी एक रिश्ता है,
जो निभता चला आया है अभी तक।
कभी एक माँ और उसके खोये बच्चे की तरह,
कभी एक बच्चे और टूट चुके सबसे प्यारे खिलौने की तरह।
ऐसा नहीं कि वे ठगते नहीं।
पर उनका छल सरल होता है।
कुछ ऐसा कि उनकी गाँठें तब भी झलकती रहती है,
जब वे अपना सबसे गहरा चोला पहने होते हैं।
और अक्सर वे जानते हैं कि उनका पर्दा इतना पतला है,
कि उनके मन के सारे कोने साफ साफ दिख रहे होते हैं।
मैं जानता हूँ कि ऐसी दलीलें कुछ साबित नहीं करती,
पर मैं कुछ साबित करना भी नहीं चाहता,
बस एक पुराने लगाव का इजहार है,
जिसमे मैं किसी हद से गुजरना भी नहीं चाहता।
कुछ तो बात है कहीं कि
अब भी उसकी बाँहें खुली मिलती हैं मुझे,
आगोश में जकड़ती नहीं,
गुनहगार-सा पकड़ती नहीं,
उसकी जहालत भी ओस से धुली मिलती हैं मुझे।
उसकी गलियों में मुझे
पायचों के मैले होने की फिक्र नहीं होती,
आस्तीन से पोछ लेता हूँ पसीना,
तो भी अपने कद की ऊँचाई नहीं खोती।
हुआ है कई बार ऐसा,
कि अपनी खुदगर्जियों ने मुझे बेपरदा कर दिया है।
मैं ने चाहा है कि कोई कहे मुझ से,
तू ने खुद को ही नही अपनो को भी नंगा किया है।
हर बार ऐसे में
एक आवाज दालान-आंगन से उठी है,
तू तो सगा है,
मालूम है तम्हारी भी मजबूरियाँ होंगी।
तुम्हे बाँधना हमारी मंशा कभी न थी हमारी,
तुम आगे बढो,
हम तुम्हारे ही रहेंगे,
बीच में चाहे जितनी भी दूरियाँ होगीं।