मंदिर का दीया, मैंने चुरा लिया
जहाँ अंधेरा घना था, उस जगह जला दिया।
लौट रहा था,
असमंजस में था,
कि मंदिर के आगे
देवी सहसा प्रगट हुई।
हँस कर बोलीं,
“तुमने तो मेरा काम कर दिया।
बता इस पुण्य का चाहिये तुम्हें क्या?”
“पुण्य का फल क्या माँगना पड़ता है?
और जो भी हो वांछित, पा सकताहै?”
मैं ने पूछा, तो वही सहज स्मित-हास,
देवी बोली सही-ही होगा,
क्या है तुम्हारी शंका, क्यौं क्षीणता के आभास?
चिंतित,
उत्तर पर थोड़ा विस्मित,
ठगा-सा, भ्रमित,
पूछा “शंका है, या कौतूहल है,
ज्ञात नहीं, पर जाननेको मन विकल है।”
उत्तर था फिर से करता चकित,
फल तो माँगने से ही मिलता,
जो स्वत: प्राप्य, मिला तुम्हे सदैव,
बिना, शर्त बिन बंधन है।
क्या नहीं बिन माँगे ही मिला,
तुम्हे तुम्हारा जीवन है?
और यदि यह प्रश्न है कि,
क्या कोई माँग सकता है कुछ भी?
हाँ, अवश्य, निश्चय ही,
यदि मन में पाने का विश्वास है।
वरना पाने और खुश होने के बीच का रिश्ता,
जीवन कथा नहीं परिहास है।
विश्वास तुम्हे संकल्प देते,
संकल्प कर्म कर्म फल समुचित,
बाकी शून्य, रिक्ति अवकाश है।
कुछ समझा, थोड़ा भ्रांत रहा,
चित्त व्यग्र और अशांत रहा,
पर नींद बहुत ही आयी अच्छी,
जगा तो मन विश्रांत लगा।
अगली रात जब मैंने दीया उठाया,
आशंकित मन से पाँव बढाया,
सम्मुख मंदिर के पंडित को पाया।
इससे पहले कि कुछ कह पाता,
मेरी बाँह पकड़ वह चल पड़ा उधर,
उसी जगह रख दिया दीया,
और सकते में आ गया पल भर।
यह क्या,
गाँव का हर अंधेरा कोना,
दीप प्रकाश जगमग दिखा।
लौट आया मंदिर सत्वर,
आँखें ली बंद कर,
और मन के ही भीतर,
एक बात कही,
फल तो तुमने पहले ही दिया है दे,
जो यह जीवन है।
इस आभार का निर्वाह कर सकूँ,
यह वर दे।
अपने प्रति कृतज्ञता से,
सहज सुलभ आत्मीयता से,
मेरी झोली भर दे।
वाह। वाह। क्या खूब लिखा है। उम्दा लेखन।👌👌
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सराहना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। आभार। Regards B. K. Das
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स्वागत आपका।
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धन्यवाद।
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