मन के सिलबटों में सोयी चुप पड़ी जो चाहतें हैं,
क्या हम इनको चाहते हैं या ये हमको चाहते हैं?
नासूर पुराने टीसते, या उल्लास किसी कल के,
अलौकिक किस माया से, मिली हम सबको चाहतें है?
ललक हर भोले बचपन की, निर्वाध किलक मनका,
या दुनियाँ बदलने पाने की, हर यौवन का सपना,
बंद गलियों में गोल-गोल, खोज अनबुझ संकेतों की,
स्पर्ष सजग मन, पर ज्ञात नहीं कि किसको चाहते हैं?
बेसुध सारी दुनियाँ से, किसी प्रिय को पा जाना,
या छिन्न-भिन्न कर बंधन सब, संधान लक्ष्य कर पाना,
जो सच-सा दिखता, पर है धूमिल और निराकार,
प्रश्न वहीं का वहीं खड़ा है, चाहे जिसको चाहते हैं?
स्वार्थ-शून्य होकर जीने की जो उठती तरंगें चंचल,
नयी चेतना जगा-जगा, ले जाती चरम शिखर पर,
उन्माद इन गतियों का फिर पूछता सहज मन को,
उन्मेष चाहते हैं हम या, जगत के हित को चाहते हैं?
सब अपने हों, चाहें सबसे निजता के बंधन में बंधना,
या सबके बन पाएँ हम, जैसे नभ सबका अपना,
भेद तनिक सा क्षद्म है गहरा, जान कभी पाएँ न पाएँ,
उन्मुक्त भाव या स्नेह-रुग्न इस चित्त को चाहते हैं?
कल हो सुदंर, दोषमुक्त, हर मन में पलती ये चाहतें,
हम हों बेहतर, द्वेष रहित जग, मंद मंद जलती ये चाहतें,
संधान स्वर्ग का है उचित, यदि मूल्य किसीका मान नहीं,
साधन यदि अधम हैं तो क्या हम अधम हो चाहते हैं।
बंधन जो मन को दे उड़ान, उन्मुक्तता जिससे मुग्ध प्राण,
स्नेह जो न आसक्ति भरे, संग जो न एकांत में व्यवधान,
चाहत बस चाहत बोझ नहीं, आराध्य बना दे कर्म सभी,
स्वप्न लगे पर आखिर में हम ऐसा जाये हो चाहते हैं।
Nice
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