इतना आसान भी नहीं होता है,
अपने आपसे मिलना।
पहले चश्मा साफ करो,
फिर आईना,
फिर जो नजर आता है,
क्या पता पहचाना जाने वाला हो न हो।
वह अगर पहचान में आता है,
तो अच्छा नहीं लगता बिल्कुल,
और अगर अच्छा लगता है,
तो पहचानने में होती है मुश्किल।
यहाँ कुछ भी मान लेने से काम नहीं चलता,
क्यौकि मन अब कठोर हो चुका होता है,
कुछ भी नहीं मान लेता,
सिर्फ अच्छा देख नहीं मचलता है,
उस अज्ञात सच्चे को,
एकबार छूने का हठ जो उसमें पलता है।
फिर अपना पता ढूंढना होता है।
और इसमे मुश्किल ये होती है,
कि बहुत सारे पता मिलते हैं खुदके,
कहीं वह गाता है, कहीं वह रोता है,
और पूरा का पूरा कहीं नहीं होता है।
पता सब के सब सच्चे हैं,
कई तो रोबदार हैं, अच्छे हैं,
पर सही कौन सा है, निर्णय नहीं होता है,
और आदमी पाने से अधिक अपने आपको खोता है।
जो पता सबसे प्यारा लगे,
उस पर अगर हम चल पड़े,
जो मिलता है, प्यारा लगता है,
बड़ा भला पर नि:स्सहाय, बेचारा लगता है,
राम-राम, दुआ-सलाम तक तो बात चलती है,
पर नहीं चलता है ये खेल लम्बा,
जो शुरू से ही हारा-हारा लगता है।
अगला पड़ाव जिस कारण भी,
पहली भेंट की निराशा या मात्र जिज्ञासु मन,
हो अपना सबसे अवाछिंत पता यदि,
तो भी चल पड़ते हम आदतन,
संभव है, घेर ले आश्चर्य,
संशय में मन में बनने लगे नये समीकरण,
“कितना भला तो दिखता है,
क्या बुरा है अगर थोड़ा कठिन और थोड़ा दूर लगता है?”
मन मानने को होता ही है कि मौलिक प्रश्न जगता है,
दूर से देखने को मुलाकात कहने की मजबूरी अगर हो,
तो इसे मिलना हरगिज न कहेंगे, तुम चाहे जो भी कहो।
पता तो और भी बहुत सारे हैं,
अधिकतर बिखरे बीच में, कुछेक सुदूर किनारे हैं।
कठिन है,
पर जीवन चुनने की कला है,
जीने की मजबूरी नहीं है।
जीने से पहले अपना सबकुछ जान लेना,
एक असाध्य राग हो सकता है, जरूरी नहीं है।
अच्छा है खुद से हरवक्त मिलो और जीते चलो,
वरना प्रश्न और उत्तर चाहे जितने मिलें,
जिन्दगी से और खुद से खुद की पहचान हो न हो।