छल क्षद्म के बल पर,
अपने से बाहर निकल कर,
जितनी भी जीत हुई,
जितनी भी प्रीति हुई,
सबने यह प्रश्न किया,
यह जो मिला क्या मिला?
यदि जारी रहा यह सिलसिला,
तो क्या कभी होगा सम्भव,
अपने मूल रूप को,
अपने अनछुए स्वरूप को,
फिर से ढूंढ पाना अपने भीतर?
संयम और स्वभाव में सिमट कर,
अपनी बनाई सीमाओं के भीतर,
जो कुछ भी गढ पाया मैं,
जितना भी बढ पाया मैं,
क्या वह होगा पर्याप्त कभी?
लगता सब कुछ सही सही,
पर प्रश्न अनुत्तरित फिर खड़ा रहा,
क्या इतने मात्र के लिये बना,
यह काल, सृष्टि, शाश्वत और नश्वर?
बुद्धि और कौशल से सज्जित,
सम्भावनाओं के पंख पर स्थित,
कहाँ कहाँ तक उड़ता चला,
क्या क्या देखा, क्या जिया, सहा,
कुछ भूला नहीं सब याद रहा,
पर भार यह कौन-सा छाती पर,
पूछता बरबस रह-रहकर,
यह सब जैसा हुआ, हुआ,
इस सब में है तेरा क्या?
क्यौं तुम अकारण इतने भ्रमित।
दम्भ कहीं कुछ कर जाने का – भले ही उसमें स्वार्थ न हो,
पिपासा कुछ पा जाने की – चाहे वह होने का अर्थ ही हो,
हठ अपना कुछ छोड़ जाने का – नश्वर में अमरत्व प्राप्ति की,
कुछ भी नहीं पूर्ण स्वयम में – चाहे कुछ भी व्यर्थ न हो।
स्वीकार्य सब साक्षात सतत।
तत सत, तत सत, तत सत।