हर-कुछ कुछ कहता है ।
हमारे दृष्टि को लालायित नहीं,
सोच की लघुता से बाधित नहीं,
जड़ और चेतन में फर्क नहीं करता,
समय का भी नहीं मोहताज,
बस होने का कथानक चलता रहता है।
हर-कुछ कुछ कहता है।
इस अनंत महाकथा में नायक नहीं होते हैं,
इसलिये नहीं कि पात्र इसके लायक नहीं होते हैं,
इसलिये भी नहीं कि होती है प्रतीक्षा
होने की कुछ और भी अद्भुत,
शायद इसलिये कि कभी जरूरत ही नहीं पड़ती इसमें,
किसी शौर्य-गाथा की,
या किसी के महिमा मंडन की,
नहीं किसी पूजा की थाली की,
नहीं धूप दीप नैवेद्य चंदन की,
क्यौंकि इस शाश्त्र में शिल्पकार
ना अपनी प्रतिभा पर इतराता है,
ना पत्थर से बनाये देव प्रतिमा की महिमा बताता है,
इस ग्रन्थ का सार तो बस इतना है,
कि हर पत्थर में प्रतिमा व्याप्त होती है,
और हर पत्थर में सृष्टि विद्यमान रहता है।
हर-कुछ कुछ कहता है।