ये जो हल्कापन भर जाता है मुझमें,
रह रह कर
कि मैं अनायास तेज चलने लगता हूँ,
मुड़के पीछे देखना अच्छा लगता है,
रुक जाता हूँ लोगों के साथ होने तक,
अकेले हो जाने का भय नहीं,
आवश्यक किसीका आश्रय नहीं,
अब थकने पर नहीं रुकता,
रुकना व्यवधान नहीं लगता,
साथ सुगम लगता है,
अपना बोझ भी कम लगता है,
जैसे अंतरिक्ष से तरंगें भावपूर्णता की,
आ रही हो मेरी ओर,
बह बह कर ।
यह जो हल्कापन भर जाता है मुझमें,
रह रह कर ।
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पगड़ी उतार फेकी,
पनही उतार फेकी,
करनी से जुदा सारी
कथनी उतार फेकी,
कंकड़ों को चुभने दिया पावों में,
फर्क करना कम कर दिया,
धूप में और छावों में,
बंद कर दिया खोजना
औरों की आँखों में
अपना कद अपना आकार,
पाँव छिले, ताप लगा,
पीड़ा हुई पर पता चला,
माप तौल के अनगिणत उपकरण,
अनावश्यक मैं ढो रहा था,
और इनके बोझ तले,
क्या कुछ नहीं खो रहा था,
आँकने से मूल्य नहीं बदलते,
समझाता हूँ स्वयं को,
कह कह कर ।
यह जो हल्कापन भर जाता है मुझमें,
रह रह कर ।
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बादलों के संग तैरना है,
हवाओं में उड़ना है,
या अनंत प्रकाश भर बाहों में,
किसी ज्योतिपुंज से जुड़ना है।
या फिर सूक्ष्म कुछ ऐसा होना,
कि किरण मूल में झाँक सके,
सृष्टि के उद्गम को परखे,
ब्रह्माण्ड को माप सके ?
अरे नहीं, ये काम अलग हैं,
उत्कृष्ट हैं पर आयाम अलग हैं,
यहाँ तैरना खुशबू जैसा,
यहाँ उड़ान मन की उड़ान है,
न स्प्रिहा न आकांक्षा,
सहज चेतना का वितान है,
सूक्ष्मता यहाँ आकार नहीं है,
आदि अंत का भार नहीं है,
नहीं चुनौती गूढ प्रश्न के
और ज्ञान का अहंकार नहीं है ।
बस मन है, शुचिता है,
सहजता का संबल है,
जो हर लेता है मेरा हर भार,
मेरी सारी कमियों को सह सह कर।
यह जो हल्कापन भर जाता है मुझमें,
रह रह कर ।