भोर : तीन आयाम

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विस्मृति के आगोश में,

सपनो की उंगलियाँ पकड़े,

हवाओं में डूबता-तैरता मन,

पता नहीं यह बचपन की यादें हैं,

या या है यादों का बचपन ।

 

शैशव-सा निर्दोष,

भींगी-भींगी शुचिता,

हरी दूब पर ओस,

नहीं कोई राग-रंग,

ना ही घुमाव ना ही कोई मोड़,

धवल सरल भोर,

जैसे काल प्रवाह का उद्गम ।

 

 

 

खिड़की-झरोखे सब बंद,

फिर भी पता नहीं किस चोर-दरवाजे से,

घुस आया थोड़ा उजाला,

बादल के फाहों-सा नरम-नरम,

गीलापन सारा बाहर छोड़ आया है,

साथ है खुशबू नयेपन की, चिरयौवन की ।

न बंधने का इशारा,

ना बांधने का संकेत,

आलस्य में भी उन्मुक्ति,

प्राण-मन-बल समेत,

बस जीवन की निरंतरता,

ना कोई भविष्य ना कोई अतीत,

स्वरहीन लय में शाश्वतता का गीत,

प्राणों को करता आगे की ओर,

अक्षुण्ण ऊर्जामय भोर,

जैसे काल यंत्र का ईंधन ।

 

 

 

रात अंधेरी जगती आँखें,

चिहुँक-चिहुँक कर लगती आँखें,

पौ फटने की आस लगाये,

जलती बुझती तपती आँखैं ।

लहरों ने थपेड़ों ने,

जिन्दगी के अनगिनत सवालों ने,

गीले डैनो ने थकी बाहों ने,

अपनी नजरों मे गिराते अपने ही खयालों ने,

हैरान तो किया है,

पर इतना भी नहीं,

कि मुड़ के देखूँ तो,

नहीं लगे कुछ भी सही ।

 

अंधेरे भरमाते हैं,

अपने से कुछ दूर ले जाते हैं,

पर वहीं तक जहाँ नजर आती है,

उजाले की पहली आहट,

आती हुई अपनी ओर,

तमभेदी मर्मग्राही भोर,

जैसे प्रलय उपरांत जीवन का क्रंदन ।

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