अपना सबकुछ अपने आपको ही दे देना।
जैसे खुद ही नाव और खुद ही पतवार भी,
खुद ही किनारा और खद ही मँझधार भी,
खुद ही धारा और खुद ही बहावभी,
किनारों से दिखती सम गति भी और
पानी में दिखता ठहराव भी,
ना समरसता की ऊब
ना परिवर्तन की हिलोड़ें,
कोई तृष्णा नहीं पूछती-
क्या पकड़ें क्या छोड़ें।
भयावह नहीं लगता अंतहीन विस्तार,
सहज सरल लगते जो दिखते
साकार निराकार निर्विकार।
ऎसे में
कभी पतवार यूँ चलाना
कि गति तो हो
पर नहीं कोई स्पंदन,
एक पीड़ाहीन व्यथा
पर नहीं कोई क्रंदन।
बस स्वयं से एक नीरवसंवाद
और आत्मा से निकलती एक मादक मूर्छा-
कि समग्र अस्तित्व पूछ उठे-
यह क्या था,यह क्या था।
ना कोई घात ना प्रतिघात,
ना कोई अपराधबोध,
ना ही अहम और पराक्रम की विभीषिका।
मात्र पूरे ब्रह्मांड से तरल सहजता।
मैं ने अपने आप को खुद को दे दिया।