अन्तर्निहित

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अजीब-सी बेफिक्री में हँ आजकल।

कल के खयाल भी आज याद नहीं आते।

कितना कुछ खो जाता है।

पर मलाल नहीं है।

अपने से आँख तरेरे कोई सवाल नहीं है।

 

अच्छा लगने लगा है

कि कुछ भी ठहरता नहीं है,

अनचाहे उद्वेगों की गति सम होने लगी है

और किसी भी चीज पकड़ने की जिद भी

कम होने लगी है।

 

कुछ किसी और का हो जाये न कहीं-

डसता नहीं है भरमाता नहीं है।

खोने का डर भी हर पल कुछ संजोकर

रखलेने को उकसा पाता नहीं है।

 

कोई कातरता नहीं है,

इस अपरिग्रह में, इस विराग में

लगता है सब कुछ सही है।

नहीं, कहीं से भी यह

हौसले की कमी नहीं है।

 

केई समझौता नहीं वहाँ तक पहुँचने

अपने तरीकों से

और कोई बदलाव नहीं चीजों से रू-ब-रू होनेके

अपने सलीकों में,

बस पाने और खोने का फर्क

अपना रंग खोने लगा है।

ऊपर से यह कि हारने और छोड़ने

के बीच का महीन-सा फर्क अब

साफ-साफ दिखने और भाने लगा है ।

सचमुच इस बेलगाम बेफिक्री में

जीने का मजा आने लगा है।

 

 

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